BJP स्थापना दिवस विशेष | सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के चार दशक :बीजेपी के 42 साल

42 साल पहले राष्ट्रवाद का जो पौधा रोपा गया था वो आज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के वटवृक्ष के रूप में सामने है।6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी के नाम से बना राजनैतिक दल तमाम कठिनाइयों और

BJP स्थापना दिवस विशेष | सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के चार दशक :बीजेपी के 42 साल

वरिष्ठ पत्रकार ,अमित सिंह 

42 साल पहले राष्ट्रवाद का जो पौधा रोपा गया था वो आज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के वटवृक्ष के रूप में सामने है।6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी के नाम से बना राजनैतिक दल तमाम कठिनाइयों और उतार चढ़ाव से होते हुए आज दुनियां का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक दल बन चुका है।
बीजेपी को क़रीब से जानने वाले इस तथ्य से इंकार नही करेंगे की हालात चाहे जैसे भी रहे हों इसने अपने मूल सिद्धांतों से कभी समझौता नही किया।
पूर्व में जब जनसंघ था तब भी दोहरी सदस्यता के मुद्दे द्वारा दबाव डलवाकर इंदिरा गांधी ने हरसंभव प्रयास किया की आरएसएस का मिशन ख़त्म किया जाय और जनसंघ के नेताओं को मिशन से अलग कर दिया जाय।लेकिन जनसंघ के नेताओं ने आरएसएस के मिशन के सामने जनसंघ की ही आहुति दे दी।
 बीजेपी की स्थापना सही मायने में अखण्ड राष्ट्र की संकल्पना को सामने रख कर हुई थी।इसमें गांधी के मूल्यों और जेपी के समाजवादी विचारधारा को भी जगह दी गई थी।बीजेपी के सामने इंदिरा कांग्रेस ,सोशलिस्ट पार्टी और वामपंथी ताकतें थीं जो हर कीमत पर सत्ता हासिल करने में भरोसा रखती थीं।इसकी एक बानगी तो तब भी दिखी जब 1984 के लोकसभा चुनाव में ग्वालियर से अटल बिहारी वाजपेयी को हराने के लिए माधवराव सिंधिया ने आखिरी दिन पर्चा भरा।


 कहा जाता है की माधवराव सिंधिया ने ऐसा राजीव गांधी के कहने पर किया था।वाजपेयी तब बीजेपी के अध्यक्ष थें।
 बीजेपी ने शुरुवात से ही राजनीति में मूल्यों को जो तरजीह दी उसका खासा नुकसान भी उसको उठाना पड़ा।1980 में पार्टी के सिर्फ दो सांसद ही लोकसभा में पहुंच सकें।
 ये दोनों लोग थे- ए के पटेल जो गुजरात के मेहसाणा से जीते और दूसरे थे सी जे रेड्डी जो आंध्र प्रदेश के हनमकोंडा से जीते थे.
 के लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन ने बीजेपी के कार्यकर्ताओं को निराश कर दिया।महज दो सीटों पर जीत दर्ज करने वाली पार्टी के दूसरे सबसे बड़े नेता एलके आडवाणी ने बयान दिया की "लोकसभा का नही ये तो शोकसभा का नतीजा लग रहा है"
 ये महसूस किया गया की जिस उम्मीद और उत्साह के साथ भारतीय जनता पार्टी की नींव रखी गई उसमें मजबूती की दरकार है।अटल बिहारी वाजपेयी ने जिस जोश के साथ कहा था की अंधेरा छटेगा-कमल खिलेगा वो इतना सहज नहीं था।
 बीजेपी को सियासी संजीवनी हिमाचल के पालमपुर में बीजेपी के राष्ट्रीय अधिवेशन में 1988 में अयोध्या मुद्दे को पार्टी के एजेंडे में शामिल करने के बाद मिली । बीजेपी को राजनीतिक जमीन यहीं से मिली।और 1989 में बीजेपी 2 सीट से 85 पर पहुंच गई। वीपी सिंह की अगुवाई वाली जनता दल को बीजेपी ने समर्थन देकर केंद्र में गैर-कांग्रेसी सरकार बनवाया, लेकिन राम मंदिर मुद्दे को हवा देना नहीं छोड़ा।
 लाल कृष्ण आडवाणी अब बीजेपी के अध्यक्ष बन चुके थे।और राम मंदिर आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा भी।



 मार्च 1990 में बीजेपी एक साथ देश के 3 राज्यों की सत्ता पर काबिज हुई थी, जिनमें राजस्थान, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश शामिल थे।तीनों ही राज्यों में एक साथ 1990 में विधानसभा चुनाव हुए थे और बीजेपी तीनों राज्यों में सरकार बनाने में सफल रही थी. हालांकि, इनमें सबसे पहले भैरोंसिंह शेखावत ने 4 मार्च 1990 को राजस्थान के सीएम के तौर पर शपथ ली थी जबकि पांच मार्च को सुंदर लाल पटवा ने मध्य प्रदेश और उसी दिन शांता कुमार ने हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली थी।इससे पहले बीजेपी किसी भी राज्य में अपना मुख्यमंत्री नहीं बना सकी थी। हालांकि, जनता पार्टी के तौर पर कई सीएम रहे थे।
 श्री राम मंदिर आंदोलन को देशव्यापी बनाने के उद्देश्य से लाल कृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा निकालने का निश्चय किया।लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचनी थी। लेकिन इससे पहले 23 अक्टूबर को आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार कर लिया गया। आडवाणी के साथ प्रमोद महाजन को भी गिरफ्तार किया गया।प्रशासन ने उनके रथ को भी जब्त कर लिया।
 श्री राम अब बीजेपी के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सबसे बड़े प्रतीक थे जबकि आडवाणी इस आंदोलन के सबसे बड़े नेता।राम मंदिर आंदोलन ने बीजेपी को बाकी दलों से ना सिर्फ अलग कर दिया बल्कि बीजेपी को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर देखा गया।
बीजेपी अब सत्ता के क़रीब थी लेकिन इसी बीच तमिलनाडु में राजीव गांधी की हुई हत्या ने राजनैतिक माहौल बदल दिया।सबसे बड़े दल के रूप में कांग्रेस ने एक बार फिर छल करते हुए जेएमएम सहित कुछ दलों के सांसदों को रिश्वत देकर सरकार बना ली। एक बार फिर ये साबित हो गया की बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए बाकी दल और विचातधारायें हर सम्भव प्रयास करेंगी।लेकिन 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी ढांचे के विध्वंस ने ये साबित कर दिया लोग अब गुलामी मानसिकता के साथ और नही रह सकतें।
 1996 में बीजेपी सबसे बड़े ताकत के रूप में उभरी।अटल-आडवाणी की जोड़ी ने राजनैतिक पंडितों को आश्चर्य में डाल दिया।
: 1996 में बीजेपी ने 161 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में सरकार बनाने का दावा पेश किया।
 चार दशक तक जनसंघ-बीजेपी के रूप में विपक्ष में रहने वाली पार्टी के सबसे बड़े नेता 16 मई 1996 को देश के 11 वे प्रधानमंत्री बने।लेकिन संख्या बल के ना रहने के कारण महज 13 दिन तक ही सरकार चल सकी।विश्वास मत पर चर्चा के दौरान जब कांग्रेसी सांसद वाजपेयी पर हंस रहे थे तब अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐतिहासिक बात कही थी।वाजपेयी ने कहा था की आज आप हम पर हंस रहे हैं लेकिन एक ऐसा दिन भी आएगा जब लोग आप पर हँसेंगे और हमारी संख्या तीन सौ के ऊपर होगी।
कांग्रेस मुक्त भारत की भविष्यवाणी सही मायने में इसी समय हुई थी।
 बीजेपी में मोदी-शाह का युग

2004 से 2014 तक बीजेपी राजनैतिक सन्यास में थी।इन दस सालों में वाजपेयी की इंडिया शाइनिंग और आडवाणी की छद्म सेक्युलरिज़्म इमेज ने पार्टी की छवि को बहुत नुकसान पहुंचाया।34 सालों में पार्टी ने वो सब करके देख लिया जो उसके बस में था।अकेले भी सरकार बनाया और कई दलों के साथ एनडीए के रूप में गठबंधन सरकार भी चलाया लेकिन मूल उद्देश्य से पार्टी लगातार दूर होते जा रही थी।
 ये तय हो गया था की बीजेपी रूपी भारी भरकम उपग्रह को राजनैतिक अंतरिक्ष मे प्रक्षेपित करने के लिए जो तकनीक चाहिए  बिना उस तकनीक के उपग्रह का प्रक्षेपण सम्भव नही है।और तब नरेंद्र मोदी के रूप में बीजेपी को उसका क्रायोजेनिक इंजन मिल ही गया।जिसने ना सिर्फ बीजेपी रूपी उपग्रह को लोकसभा रूपी अंतरिक्ष मे प्रक्षेपित किया बल्कि बाकी पार्टियों और विशेष रूप से कांग्रेस की उल्टी गिनती भी शुरू करा दी।
 13 सितम्बर 2013 को नरेंद्र मोदी को बीजेपी संसदीय बोर्ड ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया।नरेंद्र मोदी क़रीब 13 साल तक गुजरात के सीएम रहें लेकिन जब लोकसभा का चुनाव लड़ना था तो उन्होंने बनारस को चुना क्योंकि वो जानते थे की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का लक्ष्य देश की सांस्कृतिक राजधानी के प्रतिनिधि के रूप में ही हासिल की जा सकती है।और आखिरकार 282 सीटों के साथ बीजेपी ने दस साल के बाद अपने दम पर सरकार बनाई।नरेंद्र मोदी ने 15वे प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली।
 बीजेपी का ये सौभाग्य रहा है की उसके शीर्ष नेतृत्व में सशक्त राजनैतिक जोड़ी बनी रही।जनसंघ के समय श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीन दयाल उपाध्याय जबकि बीजेपी में अटल-आडवाणी की जोड़ी लेकिन इन दोनों जोड़ियों से इतर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के रूप में बीजेपी को एक ऐसी जोड़ी मिल गयी जिसने राजनीति को पार्ट टाइम जॉब से निकालकर 24×7 का सेवा करने का माध्यम बना दिया।
 बीजेपी में पॉलिटिक्स फ्रॉम बिलो

बीजेपी पर सत्ता को केंद्रित करने का आरोप लगाने वाले ये भूल जाते हैं की बीजेपी के चार दशक के इतिहास में एक आम कार्यकर्ता को ना तो कभी इतना सम्मान मिला और ना ही उसकी भूमिका इतनी महत्वपूर्ण रही जितनी की पिछले आठ सालों में रही।नरेंद्र मोदी और अमित शाह दोनों सर्वोच्च नेता जिनको संगठन में काम करने का लम्बा अनुभव प्राप्त है।जो कभी पार्टी के लिए पोस्टर लगाने का काम करते थे आज नम्बर एक और दो की पोजीशन में हैं।ये बताता है की बीजेपी बाकी दलों से अलग क्यूं है।
 सभी मूल एजेंडे को कर रहे हैं पूरा




सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सबसे बड़े प्रतीक श्रीराम का मंदिर देश के सर्वोच्च अदालत की सहमति से बनना ये बताता है की देश के संविधान और न्याय प्रक्रिया में बीजेपी का कितना भरोसा है।कश्मीर से 370 का हटना और ट्रिपल तलाक़ जैसा कोढ़ भी विधायी प्रक्रिया के द्वारा ही समाप्त कर बीजेपी तेजी से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रही है।हिंदुत्व को विशालता में स्वीकार करना और राष्ट्र प्रथम की अवधारणा को स्थापित कर देना सहज नही था।लेकिन ये मोदी-शाह का ही जलवा है की लोकसभा में 303 और राज्यसभा में 100 सांसदों वाली बीजेपी की 12 राज्यों में सरकार है जबकि चार राज्यों में वो सहयोगी की भूमिका में है।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के चार दशक :बीजेपी के 42 साल
 बीजेपी के लिए आगे की चुनौती
सर्वोच्च पर पहुंचने से ज्यादा कठिन सर्वोच्च पर बने रहना होता है।बीजेपी के लिए यथास्थिति बरकरार रखना सबसे बड़ी चुनौती है।
हालांकि पांच राज्यों में से चार में जीत ने बीजेपी के हौंसले बुलंद कर दिए हैं।विशेष रूप से उत्तरप्रदेश की जीत से पार्टी गदगद है।बावजूद इसके पूरब में पार्टी का विस्तार रुका हुआ है।पश्चिम बंगाल और ओडिशा अभी भी बीजेपी के लिए चुनौती हैं।दक्षिण भारत मे भले ही पार्टी की एंट्री हो गई हो लेकिन सम्मानजनक स्थिति के लिए बीजेपी अभी भी वहां जूझ रही है।इसके अलावे नीतिगत मुद्दों पर भी अभी कई कार्य शेष हैं।कॉमन सिविल कोड और एनपीआर जैसे महत्वपूर्ण कार्य पूरा करने के साथ साथ आर्थिक मोर्चे पर भी काम करने की अभी काफ़ी गुंजाइश है।

वरिष्ठ पत्रकार ,अमित सिंह 

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