संस्कृत शास्त्रों से पूरे विश्व को मार्गदर्शन प्राप्त होगा-कुलपति प्रो हरेराम त्रिपाठी

वाराणसी। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय शताधिक संस्कृत के ग्रन्थ राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की अभिव्यक्ति को रूपायित करते हैं। आज वर्तमान समय में जब पूरे विश्व में परस्पर संघर्ष का दौर चल रहा है ऐसे समय में संस्कृत साहित्य एवं दर्शन पूरे विश्व के लिये मागदर्शन की भूमिका अदा कर सकता है, क्योंकि संस्कृत एक मात्र ऐसी भाषा है जिसमें पृथ्वी को माता एवं समस्त मनुष्यों को उसकी संतान माना गया है।

संस्कृत शास्त्रों से पूरे विश्व को मार्गदर्शन प्राप्त होगा-कुलपति प्रो हरेराम त्रिपाठी

वाराणसी। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय शताधिक संस्कृत के ग्रन्थ राष्ट्रीय एकता और अखण्डता की अभिव्यक्ति को रूपायित करते हैं। आज वर्तमान समय में जब पूरे विश्व में परस्पर संघर्ष का दौर चल रहा है ऐसे समय में संस्कृत साहित्य एवं दर्शन पूरे विश्व के लिये मागदर्शन की भूमिका अदा कर सकता है, क्योंकि संस्कृत एक मात्र ऐसी भाषा है जिसमें पृथ्वी को माता एवं समस्त मनुष्यों को उसकी संतान माना गया है।


      उक्त विचार शनिवार को आज सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के योगसाधना केन्द्र में अयोजित आजादी के अमृत महोत्सव एवं संस्कृत सप्ताह पर "स्वतंत्रता आन्दोलन में दर्शन शास्त्रों की उपादेयता एवं दार्शनिकों का योगदान" विषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में बतौर अध्यक्ष व्यक्त किया। कुलपति प्रो त्रिपाठी ने कहा कि स्वतंत्रता आन्दोलन मे इस विश्वविद्यालय से जुड़े ऋषि तुल्य आचार्यों ने अभूतपूर्व योगदान देकर हमे आजादी दिलायी,उन लोगों ने शास्त्रों की रक्षा कर सदैव सनातन धर्म संस्कृति को बचाया इसके साथ ही  जन जन मे परम्परानुसार राष्ट्रीयता का बोध कराया।यहां के (विश्वविद्यालय के प्रथम)पूर्व कुलपति एवं उत्तर प्रदेश के प्रथम पूर्व मुख्य सचिव डॉ आदित्य नाथ झाँ जैसे संस्कृत शास्त्र विशेषज्ञों के साथ साथ पं गोपीनाथ कविराज, जो कि यहां के पूर्व प्राचार्य भी रहे हैं।चन्द्रशेखर आजाद जी आदि लोगों ने शास्त्रों के साथ ही भारतीय स्वतंत्रता मे अतुलनीय योगदान दिया है। मुख्य वक्ता पूर्व दर्शन संकायाध्यक्ष,सं सं विश्वविद्यालय के प्रो जय प्रकाश नारायण त्रिपाठी ने कहा कि उपनिवेशकालीन भारतीय दर्शनशास्त्र अपनी प्रकृति में अधिकांशतः आदर्शवादी और प्रत्ययवादी रहा है । चूँकि वेदान्त उसका मूल स्रोत था, इसलिए उस काल की दार्शनिक पुनर्रचनाओं को नव-वेदांती' कहा जा सकता है।

अग्रेजों के शासन काल मे भारतियों ने जिस प्रकार के पारतन्त्र्य का अनुभव किया उसमे संस्कृत साहित्यकारों की रचनाओं भी वैसा निदर्शन प्राप्त होता है।पारतन्त्र्य के विरोध में और स्वातंत्र्य के पक्ष मे संस्कृतज्ञों ने अपने शास्त्रों के द्वारा अभूतपूर्व योगदान दिया। मुख्य वक्ता प्रो त्रिपाठी ने कहा कि देश की आजादी मे शास्त्र के अध्ययन करने वाले अनेकों आचार्यों एवं  विद्यार्थियों मे का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। संयोजक/ संचालन एवं वेदान्त विभागाध्यक्ष वेदांती  प्रो रामकिशोर त्रिपाठी ने कहा कि हमारे संस्कृति,संस्कारों की देन है कि भारतीय लोग दर्शन से परिपूर्ण हैं। राष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रारम्भ में मंचस्थ अतिथियों के द्वारा दीप प्रज्जवलन एवं माँ सरस्वती की तैलीय क्षवि पर माल्यार्पण कर किया गया।
विषय प्रवर्तन प्रो हरिप्रसाद अधिकारी ने दर्शन शास्त्र मे भारतीय दार्शनिकों का स्वतंत्रता आन्दोलन मे भूमिका अत्यंत विविध रूप मे रही है। वैदिक मंगलाचरण डॉ विजय कुमार शर्मा,पौराणिक मंगलाचरण डॉ दिनेश कुमार गर्ग। स्वागत योगतन्त्र आगम के विभागाध्यक्ष प्रो राघवेन्द्र जी दुबे जी ने विषय पर प्रकाश डालते हुये सभी उपस्थित जनो का स्वागत अभिनंदन किया।धन्यवाद प्रो ललित कुमार चौबे ने किया।
        उक्त संगोष्ठी मे प्रो हरिशंकर पान्डेय, प्रो रमेश प्रसाद, प्रो राजनाथ, प्रो महेंद्र पान्डेय, प्रो जितेन्द्र कुमार, प्रो अमित शुक्ल, डॉ विजय पान्डेय, डॉ दिनेश गर्ग, डॉ विद्या चन्द्रा, डॉ राजा पाठक, डॉ मधुसूदन मिश्र एवं विद्यार्थी आदि उपस्थित थे।

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