पत्रकारिता- भौकाल से अंडरवीयर तक
वाराणसी। पत्रकारिता अब बस किसी तरह से धन जुटाने का जरिया बनता जा रहा है। इस अंधी दौड़ में अधिकतर पत्रकार शामिल हो गए हैं। इस दौड़ के कई बार नतीजे भी आए हैं। इसमें कुछ तो अपना मकसद प्राप्त कर लेते हैं
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पत्रकारिता- भौकाल से अंडरवीयर तक
liveupweb । पत्रकारिता अब बस किसी तरह से धन जुटाने का जरिया बनता जा रहा है। इस अंधी दौड़ में अधिकतर पत्रकार शामिल हो गए हैं। इस दौड़ के कई बार नतीजे भी आए हैं। इसमें कुछ तो अपना मकसद प्राप्त कर लेते हैं और ज्यादातार लालीपाप लेकर
राजधानियों, शहरों व गांवों की खाक छानते रहते हैं। यदि यह मिल जांय तो भौकाल ऐसा कि इनसे बड़ा दुनिया में कोई पत्रकार नही लेकिन चरित्र की गहराई का पता नही चलेगा। आज ऐसी भौकाली पत्रकारिता का चलन बढ़ता जा रहा है। वर्षों से पत्रकारिता के नाम पर चली आ रही इस ’दुकानदारी’ का नतीजा है कि पत्रकार उस गहरी खाई के सामने है जहां उसे फैसला करना है खाई को चुने या वापस लौटे। मीडिया की वर्तमान हालत से चिंतित विचारकों का मानना है कि इसके लिए मीडिया से जुड़े लोगों को पहल करनी होगी।
ताकि स्वच्छ और विश्वसनीय माहौल कायम किया जा सके। हालत यह है कि पत्रकार को वर्तमान में अपने अस्तित्व की खोज के लिए जूझना पड़ रहा है। बीजे, एमजे, मासकम्युनिकेशन कोर्स की डिग्रियां लेकर आनेवालों को पत्रकारीय संस्कार और उसकी मर्यादाओं का पाठ पढ़ाने की वजाय उन्हें चैनल की टीआरपी, अखबारों का प्रसार बढ़ाने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। विज्ञापन बटोरने की क्षमता के आधार पर सम्पादकों व पत्रकारों की नियुक्तियां हो रही हैं। हमें यह सच स्वीकार करना होगा कि पत्रकारिता में आई गिरावट के लिए कही न कहीं खुद पत्रकार जिम्मेदार है। सम्पादक बननेवाला व्यक्ति जब मीडिया हाउस के फायदे के लिए पत्रकारों को नौकरी देने के लिए तोलमोल करने लगा। कई स्वनामधन्य लोग खुद का स्वाभिमान गिरवी रखकर मालिक और मैनेजरों की जी हजूरी करने में भलाई समझने लगे।
अपनी सुख सुविधा की जिंदगी के लिए अपने ही लोगों के शोषण का जरिया जब पत्रकार ही बनने लगा तभी से पत्रकारिता का पतन शुरू हो चुका था। यह स्थिति काफी पहले से है लेकिन अब इसकी गति तेज हो गई है। मीडिया देश के कोने-काने की खबरें गांव में बैठे अदने से पत्रकार के जरिए ही पहुंचती हैं। लेकिन अधिकतर मीडिया उन्हें वेतन देना तो दूर उन्हें अपनी पहचान तक नही देती। और तो और पत्रकारिता का विभत्स रूप यदि देखना हो तो देश के श्रम न्यायालयों में पड़ी पत्रकारों की फाइलें बता देंगी। हजारों पत्रकार अपने हक के लिए अदालतों की शरण में हैं। सबसे दुखद स्थिति तो यह है कि पत्रकार संगठनों में एकरूपता और एकजुटता ही नही दिखाई देती। एक-एक संगठनों के कई-कई धड़े हैं और अलग-अलग पदाधिकारी। आपस में चीरहरण की होड़ मची है।
आज यह समाज आज बहुत बिखरा दिखाई दे रहा है और बिखरे समाज से एकजुटता की उम्मीद बची है। क्योंकि बिखरा समाज खुद और समाज भला नही कर पाएगा। गलत का समर्थन पत्रकार नही करेगा। संविधान के दायरे में न्याय की बात होगी। गलतियां तो शासन और प्रशासन में बैठे लोगों से भती होती रहती हैं। लेकिन उन्हें अंडरवीयर में नही रखा जाता। कपड़े नही उतारे जाते। मध्यप्रदेश में पत्रकार और रंगकर्मियों ने कुछ गलत किया तो सबूत के आधार पर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन किसी के कपड़े उतारना कहां तक जायज है। आज इनके कपड़े उतारे कल किसी और के भी कपड़े उतर सकते हैं। हमें अपनी गिरेबां में झांकने की जरूरत है। सच को स्वीकार करने का साहस जुटाना होगा।
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